हाई कोर्ट में मामला पाकिस्तान के पक्ष में चला गया और इसके बाद निज़ाम को कोर्ट्स ऑफ़ अपील में जाना पड़ा जहां निज़ाम की जीत हुई.
लेकिन इसके बाद पाकिस्तान ने आगे बढ़ कर उस दौर में यूके के उच्चतम न्यायालय, हाऊस ऑफ़ लार्ड्स का दरवाज़ा खटखटाया. पाकिस्तान की दलील थी कि कि निज़ाम पाकिस्तान पर किसी तरह का मुक़दमा नहीं कर सकते क्योंकि पाकिस्तान एक संप्रभु राष्ट्र है.
हाऊस ऑफ़ लार्ड्स ने पाकिस्तान के पक्ष में अपना फ़ैसला दिया और उसकी दलील को सही ठहराते हुए कहा कि निज़ाम पाकिस्तान पर मुक़दमा नहीं कर सकते. लेकिन इसके साथ ही हाऊस ऑफ़ लार्ड्स ने 10 लाख पाउंड की इस विवादित राशि को भी फ्रीज़ कर दिया.
इसके बाद से पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे हबीब इब्राहिम रहिमतुल्ला के खाते में ट्रांसफर किए गए ये पैसे नैटवेस्ट बैंक के पास हैं. बैंक के अनुसार ये पैसे अब कोर्ट के फ़ैसले के बाद ही उसके सही उत्तराधिकरी को दिए जा सकते हैं.
लेकिन 1948 में जमा किए गए 10 लाख पाउंड, बीते साठ सालों में ब्याज़ की राशि मिला कर अब 350 लाख पाउंड बन चुके हैं.
बीते कुछ सालों में बातचीत के ज़रिए इस विवाद का हल खोजने की भी कोशिश की गई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
1967 में हैदराबाद के सातवें निज़ाम की मौत हो गई. लेकिन पैसों को वापस पाने की ये क़ानूनी जंग इसके बाद भी जारी रही और इसे आगे बढ़ाया उनके उत्तराधिकारियों ने.
इस क़ानूनी लड़ाई में साल 2013 में पॉल हेविट्ट तब शामिल हुए जब पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने पाकिस्तान के लिए पैसे निकालने की उम्मीद में बैंक के ख़िलाफ़ क़ानूनी प्रक्रिया शुरू कर दी.
इसके बाद बैंक के लिए बाध्य हो गया कि वो इस मामले से इन पैसों पर दावा करने वाले सभी संबंधित पक्षों से बात करे और इसमें भारत समेत निज़ाम रियासत के दोनों युवराज भी शामिल थे.
पॉल हेविट्ट बताते हैं कि दोनों युवराजों ने हाल में इस मुद्दे पर भारतीय सरकार के साथ चर्चा की है जो एक वक़्त इन पैसों पर दावा कर चुकी थी.
अब तक निज़ाम के उत्तराधिकारियों और भारतीय सरकार के बीच चर्चा या समझौते से संबंधित कोई दस्तावेज़ सामने नहीं आया है.
बीबीसी ने निज़ाम के उत्तराधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया.
एक तरफ़ निज़ाम के परिवार का कहना है कि ऑपरेशन पोलो के दौरान ये पैसा हिफ़ाज़त से रखने के लिए पाकिस्तानी उच्चायुक्त के खाते में भेजा गया था.
दूसरी तरफ़ पाकिस्तान की दलील है कि 1948 में हैदराबाद के भारत में विलय के दौरान पाकिस्तान ने पूर्व निज़ाम की काफ़ी मदद की थी. ये पैसा उसी मदद के एवज़ में पूर्व निज़ाम ने पाकिस्तान के लोगों को तोहफ़े के तौर पर दिया था और इस कारण इस पर पाकिस्तान का हक़ है.
पॉल हेविट्ट कहते हैं, "साल 2016 में पाकिस्तान ने ये दलील पेश की कि साल 1947 से 48 के बीच हथियार पाकिस्तान से हैदराबाद लाए गए थे. ये 10 लाख पाउंड उसी की क़ीमत थे."
"पाकिस्तान ने इस मामले में अब तक दो दलीलें पेश की हैं- पहले उनका कहना था कि ये पाकिस्तान को निज़ाम का तोहफ़ा था और लेकिन बाद में कहा कि हथियारों की ख़रीद के एवज़ में ये पैसा ट्रांसफ़र किया गया था. निज़ाम के पक्ष से हमने ये दलील पेश की थी कि पाकिस्तान की दोनों दलीलों को साबित करने के लिए किसी तरह के सबूत पेश नहीं किए गए हैं. वो चर्चा ये करना चाहते हैं कि पाकिस्तानी कूटनीतिज्ञ इसमें शामिल हैं इसलिए इस दलीलों पर विश्वास किया जाना चाहिए लेकिन ये साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं पेश किए गए हैं कि हथियारों की ख़रीद के लिए पैसों का भुगतान हुआ था. यह बहुत असंगत है."
पाकिस्तान की तरफ़ से मामले का प्रतिनिधित्व कर रहे, कवीन्स काउंसेल ख़वर क़ुरैशी कहते हैं कि वो इस मामले पर फ़िलहाल कोई चर्चा नहीं करना चाहते.
बीबीसी के पास पाकिस्तान की तरफ़ से पेश की गई दलीलों की एक प्रति है. इस दस्तावेज़ के अनुसार, "हैदराबाद के सातवें निज़ाम की पाकिस्तान ने मदद की जिसके बदले में रहमतुल्ला के बैंक खाते में पैसे ट्रांसफर किए गए" ताकि इस पैसों के भारत के हाथों से दूर रखा जा सके."
"पाकिस्तान ने सातवें निज़ाम के लिए पाकिस्तान से हैदराबाद तक हथियारों की सप्लाई का काम किया था ताकि भारतीय आक्रमण से हैदराबाद ख़ुद की रक्षा कर सके."
इस दस्तावेज़ के अनुसार 20 सितंबर 1948 से ये राशि रहिमतुल्ला के लंदन स्थित बैंक खाते में है.
पॉल हेविट्ट से मैंने सवाल किया कि क्या पैसों के इस ट्रांसफर से पहले दोनों पक्षों में किसी तरह का कोई लिखित समझौता नहीं हुआ था. हेविट्ट बताते हैं कि, "सातवें निज़ाम ने हलफ़नामा दिया है कि उन्हें इस ट्रंसफर के बारे में कोई भी जानकारी नहीं थी."
"इस सबूत को अब तक चुनौती नहीं दी गई है. इससे इस बात का इशारा मिलता है कि उस वक़्त उनके वित्त मंत्री को लगा था कि वो निज़ाम के भविष्य के लिए कुछ पैसे सुरक्षित रख रहे हैं और इसी सहमति के आधार पर रहिमतुल्ला ने अपने खाते में पैसे रखने की बात स्वीकार की थी."
पॉल हेविट्ट कहते हैं, "जब सातवें निज़ाम को इस बात का अंदाज़ा हुआ कि शायद वो अपने जीवनकाल में ये पैसा वापिस नहीं पा सकेंगे तो उन्होंने एक ट्र्स्ट बनाया था. उन्होंने इस पैसे को अपने ट्र्स्ट में ही जोड़ दिया और दो ट्रस्टी बनाए. उन्होंने घोषणा की कि उनके बाद उनके उत्तराधिकारी उनके दोनों पोते- आठवें निज़ाम और उनके छोटे भाई होंगे. इस कारण अब ये दोनों ही इस परिवार के वो सदस्य हैं जिनका अधिकार इन पैसों पर है."
वो कहते हैं कि ये एक बेहद पेचीदा और ऐतिहासिक मामला है, जिससे वो सीधे तौर पर जुड़े हैं.
लेकिन इसके बाद पाकिस्तान ने आगे बढ़ कर उस दौर में यूके के उच्चतम न्यायालय, हाऊस ऑफ़ लार्ड्स का दरवाज़ा खटखटाया. पाकिस्तान की दलील थी कि कि निज़ाम पाकिस्तान पर किसी तरह का मुक़दमा नहीं कर सकते क्योंकि पाकिस्तान एक संप्रभु राष्ट्र है.
हाऊस ऑफ़ लार्ड्स ने पाकिस्तान के पक्ष में अपना फ़ैसला दिया और उसकी दलील को सही ठहराते हुए कहा कि निज़ाम पाकिस्तान पर मुक़दमा नहीं कर सकते. लेकिन इसके साथ ही हाऊस ऑफ़ लार्ड्स ने 10 लाख पाउंड की इस विवादित राशि को भी फ्रीज़ कर दिया.
इसके बाद से पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे हबीब इब्राहिम रहिमतुल्ला के खाते में ट्रांसफर किए गए ये पैसे नैटवेस्ट बैंक के पास हैं. बैंक के अनुसार ये पैसे अब कोर्ट के फ़ैसले के बाद ही उसके सही उत्तराधिकरी को दिए जा सकते हैं.
लेकिन 1948 में जमा किए गए 10 लाख पाउंड, बीते साठ सालों में ब्याज़ की राशि मिला कर अब 350 लाख पाउंड बन चुके हैं.
बीते कुछ सालों में बातचीत के ज़रिए इस विवाद का हल खोजने की भी कोशिश की गई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
1967 में हैदराबाद के सातवें निज़ाम की मौत हो गई. लेकिन पैसों को वापस पाने की ये क़ानूनी जंग इसके बाद भी जारी रही और इसे आगे बढ़ाया उनके उत्तराधिकारियों ने.
इस क़ानूनी लड़ाई में साल 2013 में पॉल हेविट्ट तब शामिल हुए जब पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने पाकिस्तान के लिए पैसे निकालने की उम्मीद में बैंक के ख़िलाफ़ क़ानूनी प्रक्रिया शुरू कर दी.
इसके बाद बैंक के लिए बाध्य हो गया कि वो इस मामले से इन पैसों पर दावा करने वाले सभी संबंधित पक्षों से बात करे और इसमें भारत समेत निज़ाम रियासत के दोनों युवराज भी शामिल थे.
पॉल हेविट्ट बताते हैं कि दोनों युवराजों ने हाल में इस मुद्दे पर भारतीय सरकार के साथ चर्चा की है जो एक वक़्त इन पैसों पर दावा कर चुकी थी.
अब तक निज़ाम के उत्तराधिकारियों और भारतीय सरकार के बीच चर्चा या समझौते से संबंधित कोई दस्तावेज़ सामने नहीं आया है.
बीबीसी ने निज़ाम के उत्तराधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया.
एक तरफ़ निज़ाम के परिवार का कहना है कि ऑपरेशन पोलो के दौरान ये पैसा हिफ़ाज़त से रखने के लिए पाकिस्तानी उच्चायुक्त के खाते में भेजा गया था.
दूसरी तरफ़ पाकिस्तान की दलील है कि 1948 में हैदराबाद के भारत में विलय के दौरान पाकिस्तान ने पूर्व निज़ाम की काफ़ी मदद की थी. ये पैसा उसी मदद के एवज़ में पूर्व निज़ाम ने पाकिस्तान के लोगों को तोहफ़े के तौर पर दिया था और इस कारण इस पर पाकिस्तान का हक़ है.
पॉल हेविट्ट कहते हैं, "साल 2016 में पाकिस्तान ने ये दलील पेश की कि साल 1947 से 48 के बीच हथियार पाकिस्तान से हैदराबाद लाए गए थे. ये 10 लाख पाउंड उसी की क़ीमत थे."
"पाकिस्तान ने इस मामले में अब तक दो दलीलें पेश की हैं- पहले उनका कहना था कि ये पाकिस्तान को निज़ाम का तोहफ़ा था और लेकिन बाद में कहा कि हथियारों की ख़रीद के एवज़ में ये पैसा ट्रांसफ़र किया गया था. निज़ाम के पक्ष से हमने ये दलील पेश की थी कि पाकिस्तान की दोनों दलीलों को साबित करने के लिए किसी तरह के सबूत पेश नहीं किए गए हैं. वो चर्चा ये करना चाहते हैं कि पाकिस्तानी कूटनीतिज्ञ इसमें शामिल हैं इसलिए इस दलीलों पर विश्वास किया जाना चाहिए लेकिन ये साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं पेश किए गए हैं कि हथियारों की ख़रीद के लिए पैसों का भुगतान हुआ था. यह बहुत असंगत है."
पाकिस्तान की तरफ़ से मामले का प्रतिनिधित्व कर रहे, कवीन्स काउंसेल ख़वर क़ुरैशी कहते हैं कि वो इस मामले पर फ़िलहाल कोई चर्चा नहीं करना चाहते.
बीबीसी के पास पाकिस्तान की तरफ़ से पेश की गई दलीलों की एक प्रति है. इस दस्तावेज़ के अनुसार, "हैदराबाद के सातवें निज़ाम की पाकिस्तान ने मदद की जिसके बदले में रहमतुल्ला के बैंक खाते में पैसे ट्रांसफर किए गए" ताकि इस पैसों के भारत के हाथों से दूर रखा जा सके."
"पाकिस्तान ने सातवें निज़ाम के लिए पाकिस्तान से हैदराबाद तक हथियारों की सप्लाई का काम किया था ताकि भारतीय आक्रमण से हैदराबाद ख़ुद की रक्षा कर सके."
इस दस्तावेज़ के अनुसार 20 सितंबर 1948 से ये राशि रहिमतुल्ला के लंदन स्थित बैंक खाते में है.
पॉल हेविट्ट से मैंने सवाल किया कि क्या पैसों के इस ट्रांसफर से पहले दोनों पक्षों में किसी तरह का कोई लिखित समझौता नहीं हुआ था. हेविट्ट बताते हैं कि, "सातवें निज़ाम ने हलफ़नामा दिया है कि उन्हें इस ट्रंसफर के बारे में कोई भी जानकारी नहीं थी."
"इस सबूत को अब तक चुनौती नहीं दी गई है. इससे इस बात का इशारा मिलता है कि उस वक़्त उनके वित्त मंत्री को लगा था कि वो निज़ाम के भविष्य के लिए कुछ पैसे सुरक्षित रख रहे हैं और इसी सहमति के आधार पर रहिमतुल्ला ने अपने खाते में पैसे रखने की बात स्वीकार की थी."
पॉल हेविट्ट कहते हैं, "जब सातवें निज़ाम को इस बात का अंदाज़ा हुआ कि शायद वो अपने जीवनकाल में ये पैसा वापिस नहीं पा सकेंगे तो उन्होंने एक ट्र्स्ट बनाया था. उन्होंने इस पैसे को अपने ट्र्स्ट में ही जोड़ दिया और दो ट्रस्टी बनाए. उन्होंने घोषणा की कि उनके बाद उनके उत्तराधिकारी उनके दोनों पोते- आठवें निज़ाम और उनके छोटे भाई होंगे. इस कारण अब ये दोनों ही इस परिवार के वो सदस्य हैं जिनका अधिकार इन पैसों पर है."
वो कहते हैं कि ये एक बेहद पेचीदा और ऐतिहासिक मामला है, जिससे वो सीधे तौर पर जुड़े हैं.
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